शादी के “अपशगुन” में अटक गई माँ की ममता, बेटों ने ठुकराया अंतिम संस्कार।Don News Express

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मानवता को शर्मसार करने वाली कहानी: शादी के “अपशगुन” में अटक गई माँ की ममता, बेटों ने ठुकराया अंतिम संस्कार

जौनपुर। मानवता को झकझोर देने वाला मामला जिले से सामने आया है, जिसने रिश्तों, संस्कारों और मानवीय संवेदनाओं की असलियत को बेनकाब कर दिया। गोरखपुर की 65 वर्षीय शोभा देवी, जो जीवन के अंतिम पड़ाव में जौनपुर के एक वृद्ध आश्रम में सहारा ढूँढ रही थीं, उन्हें मौत के बाद भी वह सम्मान नहीं मिला, जिसकी हकदार हर माँ होती है।

शोभा देवी बीमारी के चलते 19 नवंबर को इस दुनिया से चली गईं। लेकिन उनकी मौत से भी बड़ा दर्द देने वाला था उनके बेटों का व्यवहार—इतना अमानवीय, इतना निर्मम कि सुनकर रूह कांप जाए।
जब आश्रम प्रबंधन ने बड़े बेटे को माँ के निधन की सूचना दी तो उसने जो जवाब दिया, वह मानवता के गाल पर तमाचा जैसा था—

“घर में शादी है… लाश अभी भेजोगे तो अपशगुन होगा। चार दिन डीप फ्रीज़र में रख दो, शादी के बाद ले जाऊँगा।”

एक बेटे का यह उत्तर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को भीतर तक हिला देने के लिए काफी था।

आश्रम प्रबंधक रवि चौबे व रिश्तेदारों के प्रयास से किसी तरह शव गोरखपुर भेजा गया। लेकिन वहां भी अमानवीयता की हद पार हो गई। बड़े बेटे ने अंतिम संस्कार करने के बजाय अपनी माँ के शव को दफना दिया, और कहा कि चार दिन बाद मिट्टी से निकालकर संस्कार करेंगे।

65 वर्ष की माँ, जिसने जीवन भर अपने बच्चों को सँवारा, वही बच्चे आज उसे “अपशगुन” मान रहे थे… और उसकी देह को मिट्टी में दफना कर यह भरोसा दिला रहे थे कि चार दिन बाद उसे फिर बाहर निकालेंगे!

पति भुआल गुप्ता का रो-रोकर कहना था—
“चार दिन में शव कीड़े खा जाएंगे… फिर कौन-सा संस्कार होगा? क्या इसी दिन के लिए हमने बच्चों को पाला?”

भरोइया गांव के भुआल गुप्ता कभी किराना व्यवसाय से परिवार पालते थे। लेकिन घरेलू विवादों के चलते बड़े बेटे ने माता-पिता को घर से निकाल दिया। बेघर भुआल आत्महत्या करने राजघाट जा पहुँचे, पर किसी ने समझाया तो अयोध्या, फिर मथुरा और आखिरकार जौनपुर के वृद्ध आश्रम में शरण मिली।
यही आश्रम शोभा देवी की अंतिम पनाहगाह बन गया।

लेकिन बेटों की बेरुखी इससे भी बड़ी थी—न कभी हालचाल लेने आए, न इलाज में मदद की, और माँ की मौत पर भी उनके लिए शादी के “शुभ-अशुभ” की परिभाषा ज्यादा मायने रखती थी।

यह घटना सिर्फ एक माँ की पीड़ा नहीं, बल्कि समाज के उस कड़वे सच को उजागर करती है जहाँ माता-पिता वृद्ध होने पर बोझ बन जाते हैं, और बेटे अपने ही जन्मदाताओं को “अशुभ” मानकर दर-दर भटकने को छोड़ देते हैं।

यह कहानी मानवता को शर्मसार करती है।
और याद दिलाती है कि अगर जन्म देने वाली माँ ही अपशगुन लगने लगे, तो समझिए समाज का सच कितना खोखला हो चुका है।

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